संदेश

सितंबर, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
गंध मुद्रित नए पन्नों की ध्वनि उड़ती कुछ रसीदों की फिर से जग उठी मुझमें तलब कड़कते कुछ नोटों की.
सपनों की चिड़ियाएँ उड़ गईं घोंसलों सी आँखें छोड़ गईं न नींद है, न सपने कौवा-झुर्रियाँ तक झड़ गईं.
गाँव - जंगल मिलते हैं जहाँ बच्चे नहीं मिलते अब वहाँ मिल जाया करती हैं अक्सर नंगी, सिर कटी कुछ बोरियाँ.
शवभक्षी कीड़ों की भीड़ उभरती हर चौराहे पर चुपचाप रेंगती जुलूस में आए लोगों को हजारों लाल आँखों से घूरती.
कूल्हे का कटलेट खा लें कहीं वे कीड़े न आ लें शवों को चट करने वाले हमारा खाना न पचा लें.
बंदूकधारी मानव होते हैं जहाँ खूब गिरती हैं लाशें वहाँ ढेर लग जाते हैं ऊँचे अमन नहीं रहता फिर कहाँ?
मानुषखोर कुत्ते घूमते सड़कों पर रात को निकलना मत बाहर झुंड में करते हमला वे बंदूक भी नहीं तुम पर.
लोग चलते हैं पाँव घसीटकर बतियाते भी हैं बस फुसफुसाकर तंतुधारी राक्षस जागते हैं जब बलि चढ़ा देते हैं फुसलाकर.
अपनी मुठ्ठियों में चाँद भरने हाथ थे जो चंद उठने नन्हें सितारों की आग देखकर बस रुक गए दिल थामने.
सहज रोते हैं सब यहाँ आ गिरे हो तुम जहाँ लुढ़ककर ऊँचे ऊँचे आसमानों से पर हँसोगे देख पूरा जहाँ.
धरती का कठोर सीना चीरकर ले आया मुझे अपने घर सड़ने लगी तो जिला दिया माँ का गरम खून पिलाकर.
सत्तर वर्षों से पनपती मक्खियाँ उड़ा रही थीं उनकी खिल्लियाँ केक पर उनके आ बैठीं कहा - अब तुम मनाओ खुशियाँ.
बहतीं जहाँ नदियाँ लार की बातें बस उस पार की उगा शायद कुछ नाबदान में खुशबूदार हवाएँ इस बार की.
यथार्थ ने बाड़ थी लगाई बस छिड़ने वाली थी लड़ाई कब्रें खोद रही थी फंतासी इनसानियत ने मुँह की खाई.
तेरा कमरा, समय भागा घबराकर ठिठका खाकर मेज़ से ठोकर नाख़ून उखड़ आया था उसका गया लाल स्याही में नहाकर.
संयम का जीवन - एक बंदीगृह अनर्गल व्यय - एक और कारागृह शीशी में उतार लो जीवन मैं पीकर तोडूं सारे गृह.